सई परांजपे की फिल्में जब देखीं तो लगा कितनी सरल और आम लोगों की फिल्मकार हैं। ये भी लगा कि चश्मे बददूर जैसी फिल्म कोई यूं ही नहीं बना सकता। न ही कथा बना सकता है। उनकी ये फिल्में देखते हुए बासु चटर्जी भी याद आते और ऋषिकेश मुखर्जी भी। स्पर्श देखकर तो ऐसा लगा कि ऐसा बेहतरीन और संवेदनशील विषय इतने बेहतरीन अंदाज़ में तो बड़े बड़े फिल्मकार भी नहीं उठा सकते। सचमुच तब से ये तमन्ना थी कि इस फिल्मकार को देखना सुनना है। और ये मौका मिला नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में चल रहे थिएटर ओलंपिक में लिविंग लिजेंड सीरीज़ के दौरान। उन्हें सुना और फिर बहुत सी यादों और कल्पनाओं में खो गया।
Posted Date:March 31, 2018
11:24 pm