कला, संस्कृति और रंगमंच के विकास और बढ़ावे के नाम पर न जाने कितने रूपए स्वाहा होते हैं | किन्तु विकास के सारे दावे ध्वस्त हो जाते हैं जब यह पता चलता है कि देश के अधिकांश शहरों में सुचारू रूप से नाटकों के मंचन के योग्य सभागार तक नहीं हैं | महानगरों में जो हैं भी वे या तो बहुत मंहगे हैं या फिर जैसी-तैसी हालत में हैं। इसलिए इन पैसों से चंद गिने-चुने जुगाडू रंगकर्मियों और संगीत नाटक अकादमियों में बैठे बाबुओं के व्यक्तिगत विकास के अलावा शायद ही कुछ ख़ास हो पाता है।
Posted Date:November 18, 2016
10:32 am