हमारा देश धरोहरों का देश है। यहां का इतिहास बेहद समृद्ध है। कई कालखंडों से गुज़रते हुए आज हम जिस आधुनिक भारत में रह रहे हैं, उसके पीछे कई लंबी कहानियां हैं। जब हम देश के तमाम हिस्सों में बने किलों को देखते हैं तो हर किले की दर-ओ- दीवार कुछ न कुछ कहती है। मुगलकालीन कला हो या मोहन जोदड़ो – हड़प्पा के ज़माने की संस्कृति, महाभारत काल के अवशेष हों या फिर बौद्धकालीन धरोहर, अंग्रेज़ों के ज़माने की इमारतें हों या फिर इतिहास की ऐसी तमाम हस्तियों की यादगार जगहें – आप देश के किसी हिस्से से गुज़र जाएं, कोई न कोई ऐसी धरोहर आपको ज़रूर मिल जाएगी। बेशक इन धरोहरों का हाल जैसा भी हो, इनके संरक्षण के नाम पर भले ही कोई खास कोशिश न हो रही हो, लेकिन इनके पीछे का लंबा इतिहास है जो हमारी आज की संस्कृति के साथ जुड़ता है। ऐसी तमाम धरोहरों पर हमारी नज़र रहेगी और कोशिश होगी कि इन्हें आपके बीच लाया जाए…


धरोहर
‘आवारा मसीहा’ के गवाह रहे संबताबेर को लगी बाजारीकरण की हवा
mm Indianartforms
November 16, 2015

मिट्टी का दो मंजिला मकान। दक्षिणमुखी। टाली की छत। ऊपरी मंजिल पर टेरेस। वहां बैठकर साहित्य रचना करते थे कथाशिल्पी शरत चंद्र चटर्जी। पश्चिम बंगाल में हावड़ा के बनगांव इलाके में एक जगह है देउलटी। कोलकाता से लगभग 55-60 किलोमीटर दूर। यहां से गुजरने वाली बांबे रोड सेधूल भरी एक कच्ची सड़क मुड़ती है, जो सीधे रूपनारायण नदी के किनारे ले जाती है। गांव का नाम है संबताबेर।

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