आएंगे उजले दिन, ज़रूर आएंगे…

वीरेन दा का जाना…

• अतुल सिन्हा

साहित्य और पत्रकारिता के बीच क्या रिश्ता हो सकता है, इसे समझने के लिए वीरेन डंगवाल की शख्सियत को करीब से देखा जा सकता है। 68 साल के वीरेन डंगवाल की सादगी के बारे में, संवेदनशीलता के बारे में, उम्मीदों से भरी उनकी कविताओं के बारे में उनके चाहने वालों ने लगातार लिखा, अपने अनुभव साझा किए और वीरेन दा के गुज़र जाने के बाद तमाम मंचों पर उन्हें अपने अपने तरीके से याद किया। उनके अंतिम दिनों में उनसे न मिल पाने का मलाल तो ज़रूर है लेकिन उनके व्यक्तित्व को और एक बड़े भाई जैसे स्नेह को हर पल खुद में महसूस करते रहने का एहसास ताउम्र रहेगा। चंद पलों की कई मुलाकातें और हर मुलाकात में उनका गले लगाना, कंधे थपथपाना और कामकाज के साथ साथ मौजूदा तंत्र में एक ईमानदार पत्रकार और बेहतर इंसान बने रहने की उनकी आत्मीय बातें… लगता है वीरेन दा हमेशा हमारे साथ हैं।

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एक बेहतरीन कवि के तौर पर साहित्य की दुनिया में वीरेन डंगवाल अगर स्थापित हुए तो अपनी कोशिशों और ‘मार्केटिंग’ की बदौलत नहीं, बल्कि शुद्ध रूप से अपने लेखन, अपनी दृष्टि और अपनी सहज अभिव्यक्ति के दम पर। अगर उनकी कविता ‘उजाले की ओर…’ ले जाती है तो उसके पीछे आज के अंधेरे में छिपे उजाले की किरणों को महसूस करने की उनकी ताकत है। आम तौर पर साहित्य की खेमेबाज़ी और ‘वाद’ – ‘प्रतिवाद’ के गणित में रचनाकर्म और रचनाकर्मी वो नहीं रह जाता जो वास्तव में वह है। रचनाकर्म और संस्कृति को वाम और दक्षिण के नज़रिये से देखने वालों और इसे सियासत का हिस्सा बना देने वालों को वीरेन डंगवाल की कविताएं भी पढ़नी चाहिए और पत्रकार के तौर पर उनके कामकाज को भी गहराई से देखना चाहिए।

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वीरेन डंगवाल उन पत्रकारों में कभी नहीं रहे जो सत्ता और सियासत के इर्द गिर्द अपनी पत्रकारिता को किसी ख़ास ‘मकसद’ से करते हैं। आजकल तो वैसे भी संस्थागत पत्रकारिता के अपने मायने हैं। पहले भी थे, लेकिन अब विशुद्ध रूप से व्यावसायिक हितों से जुड़े हैं। पत्रकार जिन दबावों में काम करता है उनमें वो पत्रकार रह ही नहीं जाता और उसकी दृष्टि विकसित होने से पहले ही दम तोड़ देती है। मीडिया के मौजूदा स्वरूप को वीरेन डंगवाल ने दो दशक पहले ही भांप लिया था। लेकिन ‘अमर उजाला’ के साथ उनका जो रिश्ता था और जिस तरह उन्होंने वहां रहकर पत्रकारिता और साहित्य के बीच एक बेहतरीन तालमेल बनाकर रखा, उसने इस अखबार को उसी सम्मान, संस्कार और विश्वसनीयता के साथ आगे बढ़ाया है। व्यावसायिकता और प्रतियोगिता के इस दौर में बेशक हर समूह अपने लिए रास्ते बनाता है, विस्तार की कोशिशें करता है और कई मुश्किलों और विवादों से गुज़रता है लेकिन अगर संस्कारगत ईमानदारी बची रहे तो भरोसा भी बना रहता है। वीरेन डंगवाल ने बरेली में रहते हुए और बाद में दिल्ली आकर भी इस अखबार को बहुत कुछ दिया।

बरेली कॉलेज में बतौर शिक्षक उन्होंने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की है जो कम से कम वैचारिक ईमानदारी के साथ व्यावहारिक जीवन से तालमेल बिठाने वाली है। फक्कड़मिजाज़ लेकिन सामाजिक ताने बाने को बारीकी से पकड़ने वाले वीरेन दा अपनी बात इस सहजता से कह जाते कि सामने वाला उनका मुरीद हुए बगैर नहीं रह पाता। बातें भी कुछ ऐसी नहीं जो आपपर जबरन थोपी जा रही हों, बल्कि वो जो इंसानियत के साथ साथ संवेदनशीलता और समाज की हकीकत से जुड़ी हों। और सबसे बड़ी बात ये कि वीरेन दा से बात करना आपको निराशा से निकाल कर एक नई ऊर्जा से भर देने वाला होता।

आज आपको ऐसी ताकत देने वाले कहां मिलते हैं। आप किसी से बात कीजिए तो वो आपको निराशा के गहरे दलदल में धकेल देगा या फिर ‘यहां कुछ नहीं हो सकता’ जैसे यथास्थितिवादी चिंतन के लिए मजबूर कर देगा। बड़े बड़े कवि हों, साहित्यकार हों या फिर तथाकथित बुद्धिजीवी, वो मंच पर कुछ और होते हैं और निजी ज़िंदगी में कुछ और.. लेकिन वीरेन डंगवाल इनके साथ होकर भी इनसे अलग थलग लेकिन सबके बेहद करीब रहे। हो सकता है कि वीरेन जी को वामपंथी अपने खेमे का कवि बताएं, नक्सली धारा के लोग अपने करीब पाएं और जनांदोलनों से जुड़े लोग उन्हें क्रांतिकारी का दर्ज़ा भी दे दें, लेकिन वीरेन दा सिर्फ वीरेन डंगवाल हैं – एक बेहतरीन कवि, बेहतरीन इंसान, बेहतरीन पत्रकार, जीवंत और बेहतर दुनिया की उम्मीदों से भरे हुए।

Posted Date:

September 29, 2015

11:30 am
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