समाज के ही रंग दिखाती हैं फिल्में – प्रसून जोशी

(अमर उजाला के सलाहकार संपादक उदय कुमार इन दिनों पोर्ट लुई  में चल रहे  11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिस्सा लेने  मॉरीशस में हैं। अमर उजाला और अमर उजाला डॉट कॉम पर उदय जी वहां के सत्रों के कई पहलुओं पर लिख रहे हैं। हिन्दी फिल्मों का भारतीय संस्कृति से कितना गहरा नाता है ये बताने की कोशिश की प्रसून जोशी ने। उदय कुमार की ये रिपोर्ट हम अमर उजाला से साभार ‘7 रंग ‘के पाठकों के लिए  पेश कर रहे हैं….)

फिल्मों पर हमारी संस्कृति को बिगाड़ने का आरोप लगाना सही नहीं है। फिल्में तो उन्ही रंगों को दिखाती हैं जिनमें समाज रंगा होता है। ये विचार 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन के दूसरे दिन रविवार को यहां विशेष चर्चा सत्र में वक्ताओं ने व्यक्त किए। प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी का कहना था कि फिल्मों के गर्भ में विचार तो समाज से ही आता है। भले ही बॉलीवुड को इंडस्ट्री कहा जाए, लेकिन फिल्मों को चेतना तो समाज से ही मिलती है।

परिवार और स्कूल यदि हमारी संस्कृति को आगे बढ़ाएंगे तो फिल्मों में भी वह दिखाई देगा। हम जो बीज रोप रहे हैं उसे जरूर देखें क्योंकि फूल और फल तो उसी से मिलेंगे। उन्होंने कहा कि घर सभ्यता है तो घर में किचन-बैठक कहां हो, ये संस्कृति है। दूध सभ्यता है तो मक्खन संस्कृति है। जिस तरह समाज और साहित्य का गहरा नाता है, उसी तरह का संबंध फिल्मों से भी है। फिल्में समाज से लेती हैं तो समाज को देती भी हैं। हमें यह देखना है कि संस्कृति के संरक्षण में फिल्मों की क्या भूमिका है?

मॉरीशस की जानी मानी साहित्यकार शशि दुकन की राय थी कि भारतीय संस्कृति और सिनेमा का गहरा संबंध है। हर साल भारत में 1000 फिल्में बनती हैं तो जाहिर है कि उनके विषय समाज से ही उभरते हैं। फिल्मों ने राष्ट्रीय एकता और देश विदेश में हिंदी के प्रचार में गजब की भूमिका निभाई है। मानव संसाधन राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा कि जो आदमी को इंसान बना दे वही संस्कृति है।
मनुष्य की प्रकृति एक है इसलिए संस्कार और संस्कृति भी एक है। स्थान के अनुसार भिन्नता होती है। भारत की सोच में विश्व संस्कृति है। लेखक यतींद्र मिश्र ने कहा कि फिल्में कभी भी साहित्य के विकल्प के रूप में नही आयीं। अलग माध्यम के रूप में विकसित हुईं जिसने जीवन को चित्रित करने का काम किया। फिल्मों में जो संस्कृति दिखती है वह हमसे ही फिल्मों में गई है।11वें विश्व हिंदी सम्मेलन के दूसरे दिन चर्चा के केंद्र में भारतीय सांस्कृतिक विरासत रही। चर्चा में भाग ले रहे विद्वानों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ भारत की सांस्कृतिक विविधता और विशेषता को भी बड़े फलक चमकाने की ललक दिखाई दी। सभी लगभग इस बात पर एकमत दिखे की हिंदी को विश्व भाषा बनाने के साथ भारतीय संस्कृति को भी उसी स्तर पर प्रसारित करने की जरूरत है। माध्यम चाहे जो रहे, लेकिन भारतीय संस्कृति से दुनिया को जोड़ने का प्रयास तेज किया जाना चाहिए।

यहां विवेकानंद इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर के विभिन्न हॉल में रविवार को चर्चा के चार सत्र आयोजित किए गए। सभी में विषय भारतीय संस्कृति के इर्द-गिर्द रहा। सबसे गहन चर्चा ‘फिल्मों के माध्यम से भारतीय संस्कृति का संरक्षण’ पर हुई। दूसरी चर्चा में देश के कई नामचीन वरिष्ठ पत्रकारों ने हिस्सा लिया। इसका विषय था ‘संचार माध्यम और भारतीय संस्कृति।’ भारत से बाहर के देशों से आए वरिष्ठ साहित्यकारों ने भारतीय भाषा और संस्कृति पर बहुत ही भावकुता पूर्ण चर्चा की।

उन्होंने हिंदी के प्रसार का एक तरह से रोडमैप ही सामने रख दिया। एक और सत्र ‘हिंदी बाल साहित्य और भारतीय संस्कृति’ पर रखा गया था। इसमें देश में बाल साहित्य पर लिखने वाले साहित्यकारों ने नई तकनीक के जरिए बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण करने पर जोर दिया। सत्र के अलावा अनौपचारिक रूप से भी बातचीत में विभिन्न देशों से आए हिंदी प्रेमियों में नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाने के लिए भारतीय संस्कृति से जोड़ने की ललक साफ दिखाई दी।

पाणिनि के नाम पर भारतीय भाषाओं की खास प्रयोगशाला

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने रविवार को यहां महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट में पाणिनि लैंग्युएज लैबोरेटरी का उद्घाटन किया। यह प्रयोगशाला अत्याधुनिक सूचना-तकनीक के माध्यम से हिंदी और भारतीय भाषाओं को सिखाने का केंद्र बनेगी। भारत ने इसे मॉरीशस में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए खासतौर पर तैयार किया है।

(अमर उजाला डॉट कॉम से साभार)

Posted Date:

August 20, 2018

3:32 pm
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