पार्ट टाइम साहित्यकार आज ज़्यादा हैं – त्रिलोचन

त्रिलोचन जी से अतुल सिन्हा की यह बातचीत सितंबर 1994 की है और इसे अमर उजाला ने छापा था। बाद में किताबघर ने त्रिलोचन के साक्षात्कारों को जुटाकर ‘मेरे साक्षात्कार ‘नाम की पुस्तक में भी इसे शामिल किया। 7 रंग परिवार त्रिलोचन जी के जन्मदिन पर उन्हें इसी साक्षात्कार के साथ याद कर रहा है।

अथाह ज्ञान का भंडार रहे त्रिलोचन बातचीत करते करते साहित्य, संस्कृति और राजनीति के इतने आयाम बिखेर देते थे कि उन्हें समेट पाना मुश्किल हो जाता था। आप सवाल कविता पर कीजिए तो त्रिलोचन आपको कई देशों की समृद्ध साहित्यिक परंपरा का परिचय कराते हुए वहां की संस्कृति और राजनीति के बारे में बताएंगे और तब कविता पर आंएंगे। अब आप आपना सही उत्तर तलाश लीजिए। विचारों के धरातल पर आप इस 77 साल के नौजवान कवि को सबसे अलग थलग पाएंगे। नए कवियों या नई पीढ़ी के बारे में या फिर छायावाद पर भी त्रिलोचन का नज़रिया काफी अलग है। जनवादियों के बारे में भी त्रिलोचन औरों से अलग है तथा मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में साहित्य की जगह को भी वे अपने नज़रिये से देखते रहे हैं। राजनीति की ही तरह साहित्य में समाई खेमेबाज़ी को वे बेहद नुकसानदेह मानते रहे। उनकी निगाह में ज्यादातर लेखक-कवि इसी खेमेबाजी में फंसकर खुद को नष्ट कर रहे हैं।

सवाल – साहित्य की तमाम विधाओं में आप कविता को कौन सा स्थान देते हैं? क्या यह सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक विधा है?

जवाब – किसी भी देश का नागरिक जब कहीं बाहर जाता है तो उससे पूछा जाता है  तुम्हारे देश की साहित्यिक सांस्कृतिक परंपरा क्या है, कविताओं और गीतों की क्या परंपरा है? कविता किसी भी देश की संस्कृति का सूचक होती है, यह संस्कृति का एक प्रतिनिधि रूप है। कोई भी संस्कृति बगैर कविता के फल फूल नहीं सकती। यदि  साहित्य की अन्य विधाएं हरी भरी लताएं हैं तो कविता उन लताओं को और ज्यादा खूबसूरत बनाने वाला फूल है, जिसकी महक से सारा चमन गुलजार हो जाता है।

क्या वजह है कि किसी कवि की पहचान जल्दी नहीं बन पाती?

दरअसल कवि की ऊंचाई का फ़ैसला कुछ चुने हुए लोग ही करते हैं। आज तो ख़ैर स्थितियां काफी बदल गई हैं और नए कवि भी अपनी तिकड़मों से एक सीमा तक ही सही, लेकिन छपने छपाने तथा यहां वहां कविताएं पढ़कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर लेते हैं। हमारे समय की स्थितियां दूसरी थीं। आज भी कोई बहुत ज्यादा नहीं बदली हैं, लेकिन फिर भी तमाम लोगों में साहित्य की समझ मिली जाती है। उन दिनों भी पहचान का काफी संकट था। ऐसा होता ही है कि निराला तक की कविताओं को लोगों ने नजरंदाज किया था। ऐसा होता ही है कि कवि देर से पहचाने जाते हैं। मुक्तिबोध या निराला को शुरु में लोगों ने एक तरह से खारिज ही कर दिया था। बहुत बाद में आकर इन कवियों का महत्व बढ़ा है। आज भी लोग निराला की कविताएं ढंग से नहीं पढ़ पाते । दरअसल निराला जो मुश्किलें पैदा करते हैं, वह उनकी शैली के कारण है, इसलिए आपको जगह जगह पंत आदि के तो उदाहरण मिल जाएंगे, पर निराला के नहीं।

सवाल – आपको भी बहुत बाद में पहचाना गया और सत्तर के बाद से खासकर आप पर लोगों की निगाह गई। आपकी कविताओं का महत्व असाधारण रुप से बढ़ा है…

जवाब – लेकिन मैं यह मानता हूं कि मैनें जो सॉनेट लिखें हैं, उसे अब भी ठीक ढंग से पढ़ने वाले लोग कम ही हैं। मेरे कई सॉनेट शुरु से आखिर तक एक बहाव के साथ पढ़े जा सकते हैं तो कुछ की चार-छह पंक्तियाँ लगातार पढ़ी जा सकती हैं, बल्कि मेरा यह विश्वास है कि मेरा सॉनेट गाया भी जा सकता है। मैंने व्यवस्थित छंद लिया है और ज्यादातर मेरे सॉनेट रोला छंद में हैं, यतिभंग को हमारे यहां दोस्त माना जाता है, लेकिन मैंने जानबूझकर यतिभंग का प्रयोग किया है। यह ठीक है कि मेरी कविताएं भी बाद में पहचानी गई हैं लेकिन ऐसा प्राय:  हर कवि के साथ होता है। समय गुजरने के साथ ही उसका महत्व समझ में आता है।

सवाल – आज आप ,शमशेर, नागार्जुन, केदार जिस ऊँचाई पर खड़े हैं, क्या आज के कवि उस ऊँचाई तक पहुँचने की क्षमता रखते हैं ?

जवाब – यह एक अजीब सवाल है, क्योंकि अभी से किसी के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आज की पीढ़ी जब वृद्ध होगी तब पता चल पाएगा। साहित्य में धीरे-धीरे संभावनाएँ प्रकट होती हैं। वैसे संभवानाएँ तो कई है। आपको अभी हमने बताया ही कि जो लोग पचास के दशक में मुक्तिबोध की कविताओं का मज़ाक उड़ाते थे, वे 70-80 में उन्हें पहचान पाए। अत: कवि की श्रेष्ठता का फ़ैसला देर से हो पाता है। मंच पर अच्छे कवि पहचान में नहीं आते। वैसे संभवनाओं से भरे कई युवा कवि आज भी नज़र आते हैं। कुछ नाम मुझे याद हैं, जैसे- एंकांत श्रीवास्तव, कुमार विकल, कुमार अंबुज आदि। दरअसल, साहित्य भी परिवर्तनशील है और यदि हम साहित्य में परिवर्तन न लाएँ तो हमारा व्यक्तित्व ही क्या रह जाएगा ? जो लोग परंपरा पर अधिक बल देते हैं, वे नवीनता का विरोध करते हैं। साहित्य या कविता में नई चीज़ों का प्रयोग होने दीजिए।

सवाल – नई पीढ़ी के कवियों में आप क्या खास बात देखते हैं ?

जवाब – आप किस पीढ़ी को नई पीढ़ी कहते हैं। मैं तो 60 साल के कवियों को भी नई पीढ़ी का मानता हूँ। मेरी निगाह में दस-दस साल की पीढ़ियाँ होती हैं और मैं मौजूदा समय में तीन पीढ़ियों को देखता हूँ – 30 से 40 साल, 40 से 50 साल और 50 से 60 साल की उम्र के कवियों की। जाहिर है कि इनमें हर तरह के कवि आते हैं।  60 साल से अधिक उम्र के कवियों को ही सामान्यत: एक उचित पहचान मिल पाई है। इनमें केदार और कुंवर नारायण आदि आते हैं। इसके बाद तीन पीढ़ियां आई हैं। यह अच्छी बात है कि इन पीढ़ियों में कविता कुछ बदली है और बोलचाल और कविता की भाषा में दूरियां घटी हैं। कविता आजकल गद्य रूप में भी आ गई हैं। और भी प्रयोग होने चाहिए।

सवाल – जिस तरह कुछ साल पहले तक कविता नए नए वादों और कालों में पहचानी जाती रही है  (जैसे छायावाद और रीतिकाल आदि), क्या आज की कविता में ऐसे किसी नए वाद या काल की आहट मिलती है, क्या राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियां कविता को प्रभावित करती है?

जवाब – रीतिकाल दो सौ साल का माना जाता है। इस दौरान तो कवियों पर सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य का प्रभाव नहीं पड़ा और वे महज नारी सौंदर्य में ही रमे रहे। छायावाद में एक ही समस्या प्रमुख थी – साम्राज्यवाद का विरोध। आद के कवियों में ऐसा कोई विरोध का स्वर नहीं नज़र आता। लोग छायावादी कवियों में तीन चार नाम ही गिनाते हैं – निराला, प्रसाद, पंत और महादेवी। केवल यह नाम ले लेना ही छायावाद को जानना नहीं है। मैं माखनलाल चतुर्वेदी को भी छायावाद के प्रवर्तक कवियों में मानता हूं। वैसे मूल रूप से देखें तो पूर्ववर्ती कवियों में बालमुकुंद गुप्त पहले ऐसे कवि हैं जिनकी वसंत पर 1896 में लिखी कविता ने छाय़ावाद शैली की आहट पहले पहल दी थी। तब छायावाद के प्रवर्तक कवियों जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत या निराला आदि या तो पैदा हो रहे थे या बहुत छोटे थे। महादेवी वर्मा या उदय शंकर भट्ट आदि तो छायावाद की दूसरी पीढ़ी के प्रवर्तक कवियों में हैं। लेकिन आज कोई वाद नज़र नहीं आता और न ही उसकी कोई आहट। यहां रवीन्द्र नाथ टैगोर और गांधी का असर साहित्य में भी नज़र आता है और यह धारा काव्य में भी दिखती है। आज कोशिश ये की जा रही है कि कविताओं में वैचारिकता पर ज़ोर दिया जाए। सामान्य तौर पर सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह असर डालेंगी तो वे अंदर से उद्वेलित होकर कवि के अंदर फूटेंगी।

सवाल – कविता की नई जनवादी धारा पर आप क्या कहेंगे?

जवाब – बीच में एक ऐसा दौर ज़रूर दिखा था, लेकिन अब कम ही दिखता है। दरअसल जनवाद के नाम पर नारेबाज़ी और राजनीतिक गाली गलौच होने लगी है और कवि तचथा कविताएं नष्ट होने लगी हैं। कवियों में महात्वाकांक्षाएं और अवसरवाद सामने आने लगा और जो यह धारा थी वह लगभग नष्ट हो गई। जनवाद के नाम पर तीन तरह के खेमे नज़र आए – प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच। ये तीनों ही क्रमश: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवीदी कम्युनिस्ट पार्टी और भाकपा माले के संगठन हैं। लेकिन राजनीतिज्ञों के हाथों में जब साहित्यिक संगठन होंगे तब न तो रचना होगी और न ही एकता। जलेस को माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत चलाते हैं। प्रलेस वाले साहित्य और साहित्यकारों के प्रति उदासीन हो गए हैं औऱ जसम का अस्तित्व ही खत्म हो गया है। इन सबमें भाषाई व्य़ंजना का वैयक्तिक ढंग होते हुए भी वैचारिक एकता है। मूलत: यह सभी मार्क्सवाद को मानते हैं और इसकी पुष्टि के लिए अपने अपने स्वतंत्र संगठन रखते हैं। समझ में  नहीं आता कि ये मार्क्सवादी हैं या मार्क्सवाद के दुश्मन। एक कवि हैं आलोक धन्वा। जुड़े जलेस से हैं और उनको उभारने का काम करती है जसम। ऐसे तमाम लोग हैं। तो मेरे कहने का मतलब है कि उपजाई हुई प्रसिद्धि फ़सल पकने पर खत्म हो जाती है। मैं ये कहना चाहता हूं कि यदि सांप्रदायिक संगठन एक हो सकते हैं तो आप क्यों नहीं हो सकते। सिर्फ वार्षिक अधिवेषणों में बुला लेने से ही एकता नहीं हो जाती। अगर आप ये समझते हैं कि मार्क्सवाद एक जीवनव्यापी आंदोलन है और ये जीवन का भी नए सिरे से निर्माण करता है तो फिर छोड़िए राजनीतिक दलों को और एक हो जाइए। मार्क्सवाद से सहानुभूति रखने के बावजूद मैं इसके नाम पर चलने वाली पार्टियों की असलियत करीब से देख चुका हूं। चुनाव ही इनका अंतिम लक्ष्य है। माकपा तो सत्ता में भी है और पश्चिम बंगाल में तो इसने हद ही कर दी है। इसका चरित्र भाजपा या कांग्रेस से अलग नहीं है। और पश्चिम बंगाल में पार्टी का जो निचला काडर दिखता है, वह लुच्चे और बदमाशों से भरा है। इन्हीं स्थितियों का असर इनके सांस्कृतिक और साहित्यिक संगठनों पर भी दिखाई पड़ता है।

सवाल – तो क्या आप मानते हैं कि इस दौर के तमाम कवि और साहित्यकार किसी न किसी खेमेबाज़ी के शिकार हैं और इस कारण इनका रचनाकर्म भी प्रभावित होता है?

जवाब – बेशक, ये हकीकत है। आप ही सोचिए कि जहां ऐसे साहित्यकार हों जो दलों के सत्ता में आने पर अपनी विचारधारा तक बदल दें, वे क्या रचना करेंगे? अपना अस्तित्व बचाने के लिए और अपनी महात्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए आज अधिकांश कवियों और साहित्यकारों ने अपना अपना खेमा बना रखा है। इससे साहित्य सृजन को काफी नुकसान पहुंच रहा है और आत्म प्रशंसा की एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आती है। आज ढेर सारे लेखक और कवि पार्ट टाइम साहित्यकार हैं। ये लोग किसी दफ्तर में क्लर्क या अफ़सर हैं, नौकरशाही में हैं। खाली समय में तमाम तरह के मनोरंजन करना ज्यादा पसंद करते हैं। ये लोग किसी और को क्या पढ़ेंगे? इसलिए अधकचरा साहित्य रचते हैं। इसके ज़रिये वे प्रबुद्धों की श्रेणी में भी बने रहना चाहते हैं और कई स्वार्थों की पूर्ति भी करते हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद से कई साहित्यकारों को बहुत नुकसान हुआ है। उनकी रूस जाने की इच्छा धरी रह गई है।

सवाल – अंत में एक निजी सवाल। आपने पिछले कितने वर्षों से कविता नहीं लिखी?

जवाब – 1988 से । पत्नी के गुज़र जाने के बाद जो सदमा लगा, उससे मैं लंबे समय तक उबर नहीं पाया। लगा जैसे कविता वाली शिरा ही कट गई हो। लेकिन मुझे लगता है कि अब फिर से लिख सकूंगा। मन में कई भाव आते तो हैं, लेकिन अभि उन्हें कागज़ पर उतार नहीं सका हूं। लेकिन अब तत्काल शुरू करूंगा और यह सिलसिला चलेगा।

(सितंबर 1994 में हुई त्रिलोचन शास्त्री के साथ अतुल सिन्हा की बातचीत)

Posted Date:

August 20, 2019

6:00 pm
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