सुनील यादव का ज्यामितीय अमूर्तन

  • रवीन्द्र त्रिपाठी

श्रीधराणी कला दीर्घा में चल रही सुनील यादव की कलाकृतियों की प्रदर्शनी इस सुखद विस्मय से भर देती हैं कि कैसे एक अपेक्षाकृत अत्यंत युवा कलाकार ने अपना एक विशिष्ट मुहावरा विकसित कर लिया है।  कई बड़ी उम्र के कलाकार भी लंबे समय तक काम करने के बाद  अपना मुहावरा विकसित नहीं कर पाते। ज्यादातर वे कई दिशाओं में भटकते रहते हैं। पर सुनील ने आरंभिक दिनो में वो पा लिया है। आरंभिक नजर में ही ये कलाकृतियां अपनी कलाभाषा के लिए भी आकर्षित करती हैं।

 क्या है सुनील का अपना कला मुहावरा? वे अमूर्तन के पेंटर हैं।  लेकिन उनके यहां उस तरह का शुद्ध अमूर्तन नहीं है जैसा आम तौर पर समझा जाता है। सुनील चूंकि अपनी कला की पढाई के दौरान टेक्सटाइल से भी जुड़े रहे इसलिए उनकी कलाकृतियों मे ज्यामितीय़ डिजाइन काफी दिखते हैं। कहीं त्रिभुज, कही आय़त, कहीं वर्ग.  तो कही वृत्त. और बडी संख्या में अर्ध वृत्त। इन पेंटिगों में ऐसे डिजाइन पैटर्न हैं जिनको देखकर ये लगता है कि सुनील ने ज्यामितीय अमूर्तन की राह चुनी है।

 पॉल क्ली और विक्टर वासारेली जैसे कई अंतरराष्ट्रीय कलाकारों ने ज्यामितीय आकारों से अमूर्तन के ऐसे विश्व की रचना की जिसमें एक विशिष्ट तरह का चाक्षुष अनुभव होता है.  इस सिलसिले में गेरहार्ड फ्रोमेल का नाम भी नहीं भूला जा सकता जिन्होंने न्यूनतम ज्यामितीय आकारों के सहारे ऐसी कलाकृतियां रचीं जो कालजयी हैं। इस सबका तात्पर्य ये नहीं है कि सुनील पर इनका या इनमें से किसी कलाकार का असर है। ऐसा कहना या सोचना  भी अतिरेक ही होगा। बस यहां सिर्फ ये रेखांकित किया जा रहा है कि ज्यामितीय आकारों में भी कई सौदर्यात्मक संभावनाएं मौजूद होती हैं और उनका विश्व कला में कई तरह से अनुसंधान किया गया है और किया जा रहा है। यही वो प्रक्रिया है जिसनें सुनील को अपनी निजी मुहावरा गढ़ने और बनाने की तरफ अग्रसर किया है।

सुनील की कुछ कलाकृतियों में `घर’  या `घ’ जैसे शब्द या अक्षर मिलते हैं। ये क्या है? क्या ये घर की इच्छा है? या उसकी तलाश?  एक बुनियादी सवाल यहां ये उभरता है कि आखिर एक कलाकार के लिए `घर’ क्या है?  ये घर की आकांक्षा है .या अपने छोडे हुए घर की स्मृति? या दोनों का मिला जुला रूप? या कला साधना के लिए घर छोड़ने की विवशता की तरफ संकेत?  इसका कोई निश्चित जवाब देना कठिन है। घर एक आद्यबिंब भी हो सकता है जो किसी व्यक्ति या कलाकार के जेहन में हो सकता है। एक अमूर्त संरचना जो  जितनी बाहर होती है उतनी ही मन के भीतर भी। उसे महसूस तो किया जा सकता है लेकिन ठीक ठीक पारिभाषित करना मुश्किल।

 सुनील अपनी बातचीत में  म्यूजियम यानी संग्रहालय का अक्सर उल्लेख करते रहते हैं। उनका मानना है कि जो चीज  किसी गांव में सहज रूप से होती है वो किसी म्यूजियम में आकर इस मायने में बदल जाती है कि वो मूल से अलग हो जाती है। क्या मूल से अलग होने पर उसका वजूद कुछ बदल जाता है?   इसका भी कोई ठोस उत्तर नही है। पर ये कलाकार की अपनी सोच है कि वह अपने आसपास चलनेवाली प्रक्रियों को कैसे समझे। और इसी सोच से उसकी मौलिकता प्रकट होती है। कलाकार के लिए मौलिकता एक कल्पना है जो उसकी मानसिक भूमि को उर्वर बनाती है।

 हालांकि कलाकृतियों के आकार का गुणवत्ता से कोई सीधा रिश्ता नहीं होता। कई बार छोटे आकार की कलाकृतियां भी बड़ा प्रभाव पैदा करती हैं। पर ये भी सही है कि बड़े आकार की कलाकृतियां रचने के लिए विशिष्ट प्रकार की साधना चाहिए। सुनील की इस प्रदर्शनी में मझोले आकार की पेंटिंग तो है हीं बड़े आकार भी हैं जो ये दिखातीं हैं इस कलाकार ने अपने बड़े कैनवास के बारे में कितने डिटेल या विस्तार में सोचा है।  

Posted Date:

August 6, 2019

4:16 pm
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