हम सबके थे नामवर जी

नामवर सिंह किसके थे? वामपंथियों के या दक्षिणपंथियों के या फिर मध्यमार्गी? उनकी आखिरी विदाई के वक्त उनके पार्थिव शरीर पर सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ ने अपनी पट्टी के साथ फूल चढ़ाए थे। उनके गुज़र जाने पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक ने शोक जताया। भले ही कोई उनकी अंतिम यात्रा में शरीक न हुआ हो, लेकिन संदेश भेजने में कोताही नहीं बरती। लोधी रोड में अंतिम संस्कार के वक्त काफी इंतज़ार रहा कि कोई बड़ा नेता या सरकारी नुमाइंदा आ जाए, लेकिन जमा हुए तो साहित्य की दुनिया के ही उनके वो अपने जिन्होंने नामवर को कभी न कभी, कहीं न कहीं देखा, सुना, पढ़ा और महसूस किया। आलोचक-लेखक नामवर के तमाम आलोचक भी मौजूद थे और चाहने वाले तो थे ही।

नामवर सिंह के कमरे में लगी एक तस्वीर – प्रभाष जोशी के साथ नामवर

एक वक्त के बाद महाप्रयाण सबकी नियति है। नामवर जी को सब अपना मानते थे। ऐसा लगता था मानो वो आपके घर के बूढ़े-बुजुर्ग हों। मैं ज्यादा तो उनसे नहीं मिला, लेकिन उन्हें सुना कई बार। उनके बारे में साहित्य जगत के खेमेबाज़ी में फंसे लोगों से कई तरह की बातें भी समय समय पर सुनता रहा। कई ऐसी भी बातें जो किसी साहित्यकार या नामवर जैसे कद के लोगों के लिए शोभा नहीं देतीं। कुछ ने उन्हें कई बार दक्षिणपंथी करार दिया तो कुछ ने वामपंथी। लेकिन नामवर सिर्फ नामवर थे। वो जन संस्कृति मंच वालों के लिए भी वही थे, प्रगतिशील लेखक संघ वालों के लिए भी और जनवादी लेखक संघ वालों के लिए भी, लेकिन उन्हें कांग्रेसी भी अपना मानते रहे और दक्षिणपंथियों का एक हिस्सा भी।

मुझे विष्णुचंद्र शास्त्री और नामवर सिंह के साहित्यिक रिश्ते भी याद आते हैं और उनके बीच संवाद के आलोचनात्मक दौर भी। लेकिन साहित्य और संस्कृति किसी सियासी रंगमंच का हिस्सा नहीं हो सकता और न ही किसी ‘वाद’ में बंध सकता है – ये बात नामवर सिंह ने साबित की थी। उन्हें कुछ लोगों ने ढुलमुल भी कहा और उनकी विनम्रता को उनकी ‘महात्वाकांक्षाओं’ से भी जोड़ा। लेकिन एक फक्कड़ साहित्यकार, कवि, आलोचक, लेखक की भला क्या महात्वाकांक्षा हो सकती थी। अंतिम वक्त तक डीडीए के एक पुराने से फ्लैट की दूसरी मंजिल में किताबों के बीच एकाकी सा जीवन बिताने वाले, कहीं भी स्नेह और सम्मान से बुलाए जाने पर चले जाने वाले नामवर जी के लिए नई पीढ़ी में संभावनाएं दिखती रहीं, हर छात्र, हर युवा लेखक या कवि उनके लिए बहुत अपना था और उसके साथ अपने अनुभव और ज्ञान को साझा करने में उन्हें कभी कोई दिक्कत नहीं होती।

बेशक नामवर जी के साथ उनके समकालीन साहित्यकारों या लोगों के अपने अपने अनुभव रहे हों, कुछ उनके निजी जीवन और जिंदगी जीने की शैली पर चुटकियां लेते रहे हों, लेकिन किसी में उनकी विद्वता पर उंगली उठाने या कुछ भी कहने का साहस कभी नहीं रहा। नामवर जी को इसकी परवाह भी कभी नहीं रही और अंतिम समय तक वह अपने अंदाज में जीते रहे। अमर उजाला की तरफ से अखबार के समूह सलाहकार यशवंत व्यास के साथ उनके घर में नामवर जी के जो अंतरंग अनुभव सुनने को मिले वो अद्भुत थे। कैसे उन्होंने ‘कविता के नए प्रतिमान’ महज इसलिए 5-6 दिनों में लिख मारा क्योंकि उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए फटाफट रचना देने की चुनौती दी गई थी। कैसे वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए चुनाव लड़े और फिर कैसे उनका मोहभंग हुआ। छात्रों के लिए उन्होंने क्या किया और किन किन दौर से गुजरे। बहुत कुछ जो नामवर जी ने कुछ ही महीने पहले हमसब के बीच साझा किया। अमर उजाला ने उन्हें इसी 31 जनवरी को शब्द सम्मान से नवाज़ा था। वो तब अचेत अस्पताल में थे, अंतिम जंग लड़ रहे थे।

बेशक नामवर का जाना हमसब के लिए एक ऐसी टीस का विषय है मानो घर का कोई बहुत अपना हमसे हमेशा के लिए बिछड़ गया हो। ‘7 रंग’ परिवार की तरफ से नामवर जी को सादर नमन।

— अतुल सिन्हा

Posted Date:

February 22, 2019

8:40 am Tags: , , ,
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