परसाई जी ने प्रेमचंद के फटे जूतों को कैसे देखा

परसाई जी ने व्यंग्य को जो नए आयाम दिए, उन्होंने देश, समाज, रिश्ते-नाते, राजनीति और साहित्य से लेकर मध्यवर्ग की महात्वाकांक्षाओं को अपनी चुटीली शैली में जिस तरह पेश किया, वह अब के लेखन में आप नहीं पा सकते। हरिशंकर परसाई के विशाल रचना संसार से गुजरते हुए आपको उनके व्यक्तित्व की पूरी झलक मिल जाएगी। ये भी पता चलेगा कि दौर चाहे कोई भी हो, अगर आपका नज़रिया साफ हो, समाज और व्यक्ति को देखने की आपकी मनोवैज्ञानिक वृत्ति हो, हर हाल और व्यक्ति में हास्य-व्यंग्य तलाश लेने वाली आपकी पारखी नज़र हो और सबसे बड़ी बात उसे शब्दों में ढाल देने की कला में आप निपुण हों तो बेशक आप भी हरिशंकर परसाई बन सकते हैं। लेकिन परसाई सिर्फ एक हैं और वही रहेंगे। क्योंकि इन सारी कलाओं में माहिर सिर्फ वही थे। व्यंग्य लेखकों की देश में कमी नहीं है, लेकिन हास्य और व्यंग्य के घालमेल में वह दृष्टि पैदा ही नहीं हो पा रही है। मंचीय तृष्णा के शिकार आज के व्यंग्यकारों को कुछ मीडिया का ग्लैमर डुबो रहा है तो कुछ व्यावसायिक प्रतिस्पर्धाएं। इसलिए बेहतर है कि परसाई जी को याद ही नहीं करें, उन्हें पढ़ें भी और मौजूदा दौर से जोड़कर उनकी रचनाओं को देखें भी। बेशक आप पाएंगे कि परसाई का लेखन हमेशा प्रासंगिक रहने वाला अनमोल ख़जाना है।

22 अगस्त को उनके जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए ‘7 रंग’ के पाठकों के लिए उनकी एक मशहूर रचना — प्रेमचंद के फटे जूते   

    हरिशंकर परसाई

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सर पर किसी मोटे कपडे की टोपी, कुर्ता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूंछे चहरे को भरा-भरा बतलाती है।
पांवों में कैनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है, जिसमे से अंगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ- फोटो खिंचाने की अगर ये पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।
मैं चहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हे मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हे इसका जरा भी एहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज’ कहा होगा, तब परम्परा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है ये अधूरी मुसकान। यह मुसकान नहीं है, इसमे उपहास है, व्यंग्य है!

यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचवा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है।

फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था! शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम ‘अच्छा चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं और मांगे की मोटर से बरात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिंचाते है जिससे फोटो में खुशबू आ जाए। गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है।

परसाई जी का एक दुर्लभ चित्र                                                                                                                     (साभार – गूगल)

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे! जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो अच्छे जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के अनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडम्बना मुझे इतनी तीव्रता से कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं। तुम महान कथाकार, उपन्यास सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में तुम्हारा जूता फटा हुआ है।
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा जमीन से घिसता है और पैनी गिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है।
पूरा तला गिर जायेगा, पूरा पंजा छिल जायेगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्व नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं।
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो जिंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है ये?
– क्या होरी का गोदान हो गया?
– क्या पूस की रात में सूअर हलकू का खेत चर गए?
– क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डाक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया।
वही मुस्कान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूं। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो-मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं, घिस जाता है।
कुम्भनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा-
‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरी नाम।’
और ऐसे बुलाकर देनेवालों के लिए कहा गया था- ‘जिनके देखे दुःख उपजत है, तिनकों करबो परै सलाम!’ चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज जो परत-दर-परत सदियों से जमती गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आजमाया।
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।
तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमजोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमजोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी जंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुस्कुरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी।
तुम्हारी यह पांव की अंगुली मुझे संकेत करती सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझाता हूं और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझाता हूं।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो। उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बचाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो- मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?

मैं समझता हूं। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझाता हूं, अंगुली का इशारा समझता हूं, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूं।

(भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से छापे गए उनके व्यंग्य संग्रह – प्रेमचंद के फटे जूते – से साभार)

Posted Date:

August 22, 2018

5:03 pm
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